Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


गोदान--मुंशी प्रेमचंद


चुहिया गिड़गिड़ाने लगी। झुनिया ने बड़े अदरावन के बाद बच्चा उसकी गोद में दिया। लेकिन झुनिया और गोबर में अब भी न पटती थी। झुनिया के मन में बैठ गया था कि यह पक्का मतलबी, बेदर्द आदमी है; मुझे केवल भोग की वस्तु समझता है। चाहे मैं मरूँ या जिऊँ; उसकी इच्छा पूरी किये जाऊँ, उसे बिलकुल ग़म नहीं। सोचता होगा, यह मर जायगी, तो दूसरी लाऊँगा; लेकिन मुँह धो रखें बच्चू। मैं ही ऐसी अल्हड़ थी कि तुम्हारे फन्दे में आ गयी। तब तो पैरों पर सिर रखे देता था। यहाँ आते ही न जाने क्यों जैसे इसका मिज़ाज ही बदल गया। जाड़ा आ गया था; पर न ओढ़न, न बिछावन। रोटी-दाल से जो दो-चार रुपए बचते, ताड़ी में उड़ जाते थे। एक पुराना लिहाफ़ था। दोनों उसी में सोते थे; लेकिन फिर भी उनमें सौ कोस का अन्तर था। दोनों एक ही करवट में रात काट देते। गोबर का जी शिशु को गोद में लेकर खेलाने के लिए तरसकर रह जाता था। कभी-कभी वह रात को उठाकर उसका प्यारा मुखड़ा देख लिया करता; लेकिन झुनिया की ओर से उसका मन खिंचता था। झुनिया भी उससे बात न करती, न उसकी कुछ सेवा ही करती और दोनों के बीच में यह मालिन्य समय के साथ लोहे के मोचेर् की भाँति गहरा, दृढ़ और कठोर होता जाता था। दोनों एक दूसरे की बातों का उलटा ही अर्थ निकालते, वही जिससे आपस का द्वेष और भड़के। और कई दिनों तक एक-एक वाक्य को मन में पाले रहते और उसे अपना रक्त पिला-पिलाकर एक दूसरे पर झपट पड़ने के लिए तैयार करते रहते, जैसे शिकारी कुत्ते हों।

उधर गोबर के कारख़ाने में भी आये दिन एक-न-एक हंगामा उठता रहता था। अबकी बजट में शक्कर पर डयूटी लगी थी। मिल के मालिकों को मजूरी घटाने का अच्छा बहाना मिल गया। डयूटी से अगर पाँच की हानि थी, तो मजूरी घटा देने से दस का लाभ था। इधर महीनों से इस मिल में भी यही मसला छिड़ा हुआ था। मजूरों का संघ हड़ताल करने को तैयार बैठा हुआ था। इधर मजूरी घटी और उधर हड़ताल हुई। उसे मजूरी में धेले की कटौती भी स्वीकार न थी। जब इस तेज़ी के दिनों में मजूरी में एक धेले की भी बढ़ती नहीं हुई, तो अब वह घाटे में क्यों साथ दे!
मिरज़ा खुर्शेद संघ के सभापति और पण्डित ओंकारनाथ, ' बिजली ' -सम्पादक, मन्त्री थे। दोनों ऐसी हड़ताल कराने पर तुले हुए थे कि मिल-मालिकों को कुछ दिन याद रहे। मजूरों को भी हड़ताल से क्षति पहुँचेगी, यहाँ तक कि हज़ारों आदमी रोटियों को भी मुहताज हो जायँगे, इस पहलू की ओर उनकी निगाह बिलकुल न थी। और गोबर हड़तालियों में सबसे आगे था। उद्दंड स्वभाव का था ही, ललकारने की ज़रूरत थी। फिर वह मारने-मरने को न डरता था।
एक दिन झुनिया ने उसे जी कड़ा करके समझाया भी -- तुम बाल-बच्चेवाले आदमी हो, तुम्हारा इस तरह आग में कूदना अच्छा नहीं।
इस पर गोबर बिगड़ उठा -- तू कौन होती है मेरे बीच में बोलनेवाली ? मैं तुझसे सलाह नहीं पूछता।
बात बढ़ गयी और गोबर ने झुनिया को ख़ूब पीटा। चुहिया ने आकर झुनिया को छुड़ाया और गोबर को डाँटने लगी। गोबर के सिर पर शैतान सवार था। लाल-लाल आँखें निकालकर बोला -- तुम मेरे घर में मत आया करो चूहा, तुम्हारे आने का कुछ काम नहीं।
चुहिया ने व्यंग के साथ कहा -- तुम्हारे घर में न आऊँगी, तो मेरी रोटियाँ कैसे चलेंगी। यहीं से माँग-जाँचकर ले जाती हूँ, तब तवा गर्म होता है। मैं न होती लाला, तो यह बीबी आज तुम्हारी लातें खाने के लिए बैठी न होती।
गोबर घूँसा तानकर बोला -- मैनै कह दिया, मेरे घर में न आया करो। तुम्हीं ने इस चुड़ैल का मिज़ाज आसमान पर चढ़ा दिया है।
चुहिया वहीं डटी हुई निःशंक खड़ी थी, बोली -- अच्छा अब चुप रहना गोबर! बेचारी अधमरी लड़कोरी औरत को मारकर तुमने कोई बड़ी जवाँमदीर् का काम नहीं किया है। तुम उसके लिए क्या करते हो कि तुम्हारी मार सहे? एक रोटी खिला देते हो इसलिए? अपने भाग बखानो कि ऐसी गऊ औरत पा गये हो। दूसरी होती, तो तुम्हारे मुँह में झाड़ू मारकर निकल गई होती।
मुहल्ले के लोग जमा हो गये और चारों ओर से गोबर पर फटकारें पड़ने लगीं। वही लोग, जो अपने घरों में अपनी स्त्रियों को रोज़ पीटते थे, इस वक़्त न्याय और दया के पुतले बने हुए थे। चुहिया और शेर हो गयी और फ़रियाद करने लगी -- डाढ़ीजार कहता है मेरे घर न आया करो। बीबी-बच्चा रखने चला है, यह नहीं जानता कि बीबी-बच्चों का पालना बड़े गुर्दे का काम है। इससे पूछो, मैं न होती तो आज यह बच्चा जो बछड़े की तरह कुलेलें कर रहा है, कहाँ होता? औरत को मारकर जवानी दिखाता है। मैं न हुई तेरी बीबी, नहीं यही जूती उठाकर मुँह पर तड़ातड़ जमाती और कोठरी में ढकेलकर बाहर से किवाड़ बन्द कर देती। दाने को तरस जाते।
गोबर झल्लाया हुआ अपने काम पर चला गया। चुहिया औरत न होकर मर्द होती, तो मज़ा चखा देता। औरत के मुँह क्या लगे।
मिल में असन्तोष के बादल घने होते जा रहे थे। मज़दूर ' बिजली ' की प्रतियाँ जेब में लिये फिरते और ज़रा भी अवकाश पाते, तो दो-तीन मज़दूर मिलकर उसे पढ़ने लगते। पत्र की बिक्री ख़ूब बढ़ रही थी। मज़दूरों के नेता ' बिजली ' कायार्लय में आधी रात तक बैठे हड़ताल की स्कीमें बनाया करते और प्रातःकाल जब पत्र में यह समाचार मोटे-मोटे अक्षरों में छपता, तो जनता टूट पड़ती और पत्र की कापियाँ दूने-तिगुने दाम पर बिक जातीं।
उधर कम्पनी के डायरेक्टर भी अपनी घात में बैठे हुए थे। हड़ताल हो जाने में ही उनका हित था। आदमियों की कमी तो है नहीं। बेकारी बढ़ी हुई है; इसके आधे वेतन पर ऐसे ही आदमी आसानी से मिल सकते हैं। माल की तैयारी में एकदम आधी बचत हो जायगी। दस-पाँच दिन काम का हरज़ होगा, कुछ परवाह नहीं। आख़िर यह निश्चय हो गया कि मज़ूरी में कमी का ऐलान कर दिया जाय। दिन और समय नियत कर दिया गया, पुलिस को सूचना दे दी गयी। मजूरों को कानोंकान ख़बर न थी। वे अपनी घात में थे। उसी वक़्त हड़ताल करना चाहते थे; जब गोदाम में बहुत थोड़ा माल रह जाय और माँग की तेज़ी हो।
एकाएक एक दिन जब मजूर लोग शाम को छुट्टी पाकर चलने लगे, तो डायरेक्टरों का ऐलान सुना दिया गया। उसी वक़्त पुलिस आ गयी। मजूरों को अपनी इच्छा के विरुद्ध उसी वक़्त हड़ताल करनी पड़ी, जब गोदाम में इतना माल भरा हुआ था कि बहुत तेज़ माँग होने पर भी छः महीने से पहले न उठ सकता था।
मिरज़ा खुर्शेद ने यह ख़बर सुनी, तो मुस्कराये, जैसे कोई मनस्वी योद्धा अपने शत्रु के रण-कौशल पर मुग्ध हो गया हो। एक क्षण विचारों में डूबे रहने के बाद बोले -- अच्छी बात है। अगर डायरेक्टरों की यही इच्छा है, तो यही सही। हालतें उनके मुआफ़िक़ हैं; लेकिन हमें न्याय का बल है। वह लोग नये आदमी रखकर अपना काम चलाना चाहते हैं। हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि उन्हें एक भी नया आदमी न मिले। यही हमारी फ़तह होगी। ' बिजली ' -कायार्लय में उसी वक़्त ख़तरे की मीटिंग हुई, कार्य-कारिणी समिति का भी संगठन हुआ, पदाधिकारियों का चुनाव हुआ और आठ बजे रात को मजूरों का लम्बा जुलूस निकला।
दस बजे रात को कल का सारा प्रोग्राम तय किया गया और यह ताकीद कर दी गयी कि किसी तरह का दंगा-फ़साद न होने पाये। मगर सारी कोशिश बेकार हुई। हड़तालियों ने नये मजूरों का टिड्डी-दल मिल के द्वार पर खड़ा देखा, तो इनकी हिंसा-वृत्ति क़ाबू के बाहर हो गयी। सोचा था, सौ-सौ पचास-पचास आदमी रोज़ भर्ती के लिए आयेंगे। उन्हें समझा-बुझाकर या धमका कर भगा देंगे। हड़तालियों की संख्या देखकर नये लोग आप ही भयभीत हो जायँगे, मगर यहाँ तो नक्शा ही कुछ और था; अगर यह सारे आदमी भर्ती हो गये, हड़तालियों के लिए समझौते की कोई आशा ही न थी। तय हुआ कि नये आदमियों को मिल में जाने ही न दिया जाये। बल-प्रयोग के सिवा और कोई उपाय न था। नया दल भी लड़ने-मरने पर तैयार था। उनमें अधिकांश ऐसे भुखमरे थे, जो इस अवसर को किसी तरह भी न छोड़ना चाहते थे। भूखों मर जाने से या अपने बाल-बच्चों को भूखों मरते देखने से तो यह कहीं अच्छा था कि इस परिस्थिति से लड़कर मरें।
दोनों दलों में फ़ौजदारी हो गयी। ' बिजली ' -सम्पादक तो भाग खड़े हुए, बेचारे मिरज़ाजी पिट गये और उनकी रक्षा करते हुए गोबर भी बुरी तरह घायल हो गया। मिरज़ाजी पहलवान आदमी थे और मँजे हुए फिकैत, अपने ऊपर कोई गहरा वार न पड़ने दिया। गोबर गँवार था। पूरा लट्ठ मारना जानता था; पर अपनी रक्षा करना न जानता था, जो लड़ाई में मारने से ज़्यादा महत्व की बात है। उसके एक हाथ की हड्डी टूट गयी, सिर खुल गया और अन्त में वह वहीं ढेर हो गया। कन्धों पर अनगिनती लाठियाँ पड़ी थीं, जिससे उसका एक-एक अंग चूर हो गया था।
हड़तालियों ने उसे गिरते देखा, तो भाग खड़े हुए। केवल दस-बारह जँचे हुए आदमी मिरज़ा को घेरकर खड़े रहे। नये आदमी विजय-पताका उड़ाते हुए मिल में दाख़िल हुए और पराजित हड़ताली अपने हताहतों को उठा-उठाकर अस्पताल पहुँचाने लगे; मगर अस्पताल में इतने आदमियों के लिए जगह न थी। मिरज़ाजी तो ले लिये गये। गोबर की मरहम-पट्टी करके उसके घर पहुँचा दिया गया।
झुनिया ने गोबर की वह चेष्टाहीन लोथ देखी तो उसका नारीत्व जाग उठा। अब तक उसने उसे सबल के रूप में देखा था, जो उस पर शासन करता था, डाँटता था, मारता था। आज वह अपंग था, निस्सहाय था, दयनीय था। झुनिया ने खाट पर झुककर आँसू भरी आँखों से गोबर को देखा और घर की दशा का ख़याल करके उसे गोबर पर एक ईष्यार्मय क्रोध आया। गोबर जानता था कि घर में एक पैसा नहीं है वह यह भी जानता था कि कहीं से एक पैसा मिलने की आशा नहीं है। यह जानते हुए भी, उसके बार-बार समझाने पर भी, उसने यह विपत्ति अपने ऊपर ली। उसने कितनी बार कहा था -- तुम इस झगड़े में न पड़ो, आग लगाने वाले आग लगाकर अलग हो जायँगे, जायगी ग़रीबों के सिर; लेकिन वह कब उसकी सुनने लगा था। वह तो उसकी बैरिन थी। मित्र तो वह लोग थे, जो अब मज़े से मोटरों में घूम रहे हैं। उस क्रोध में एक प्रकार की तुष्टि थी, जैसे हम उन बच्चों को कुरसी से गिर पड़ते देखकर, जो बार-बार मना करने पर खड़े होने से बाज़ न आते थे, चिल्ला उठते हैं -- अच्छा हुआ, बहुत अच्छा, तुम्हारा सिर क्यों न दो हो गया।
लेकिन एक ही क्षण में गोबर का करुण-क्रन्दन सुनकर उसकी सारी संज्ञा सिहर उठी। व्यथा में डूबे हुए यह शब्द उसके मुँह से निकले -- हाय-हाय! सारी देह भुरकस हो गयी। सबों को तनिक भी दया न आयी। वह उसी तरह बड़ी देर तक गोबर का मुँह देखती रही। वह क्षीण होती हुई आशा से जीवन का कोई लक्षण पा लेना चाहती थी। और प्रति-क्षण उसका धैर्य अस्त होने वाले सूर्य की भाँति डूबता जाता था, और भविष्य का अन्धकार उसे अपने अन्दर समेट लेता था।

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